भाई-बहन में भी अब वो अपनापन कहाँ...

 *लेखक : सन्तोष कुमार* 
कभी समय था जब भाई-बहन का रिश्ता घर की दीवारों में मुस्कुराता था। बचपन की शरारतों से लेकर बड़े होने तक की जिम्मेदारियों तक दोनों के बीच एक अदृश्य डोर थी जो हर परिस्थिति में साथ निभाती थी। वही डोर आज ढीली पड़ती नज़र आ रही है। पहले जब बहन भाई के स्कूल से लौटने का इंतज़ार करती थी उसकी पसंद का नाश्ता बनाकर रखती थी तो भाई भी बहन के हर जन्मदिन पर सबसे पहले उसे गले लगाता था। यह रिश्ता तब न किसी औपचारिकता में बंधा था न किसी अवसर की प्रतीक्षा में।
यह तो भावनाओं का ऐसा प्रवाह था जो हर दिन बहता था पर वक्त ने जैसे-जैसे रफ्तार पकड़ी, रिश्तों की गहराई पर परतें चढ़ने लगीं। आज की पीढ़ी काम, करियर और डिजिटल व्यस्तता में इतनी उलझी है कि वह भावनाओं को बस त्यौहारों की तारीख़ों तक सीमित कर चुकी है। अब राखी डाक से भेजी जाती है भाई दूज का तिलक वीडियो कॉल पर हो जाता है और रिश्ता व्हाट्सऐप के एक संदेश में सिमट जाता है “हैप्पी भाई दूज दीदी लव यू।” यह संदेश सच्चाई कहता है कि अब रिश्ते जुड़े जरूर हैं पर भीतर से कहीं खाली हैं।
पहले माँ का आशीर्वाद और पिता की डाँट के बीच जो भाई-बहन की नोकझोंक पलती थी वही अब वक्त की दीवारों से टकराकर खो गई है। अब भाई बहन की मुस्कान को तस्वीरों में देखता है और बहन भाई की सफलता की खबर सोशल मीडिया से जानती है। त्योहार अब घरों में नहीं मोबाइल स्क्रीन पर मनाए जाते हैं। बहन की आरती की लौ अब डिजिटल फिल्टरों में चमकती है और भाई का आशीर्वाद “इमोजी” में मुस्कुराता है। हम आधुनिक हो गए हैं, लेकिन रिश्तों की आत्मा जैसे पीछे छूट गई है।
अपनापन अब शब्दों में नहीं बस औपचारिकता में रह गया है।
फिर भी हर घर में कहीं न कहीं वह पुरानी गर्माहट अब भी बाकी है। जब बहन अचानक फोन करके कहती है “भैया याद आए?” या भाई बिना वजह बहन के घर पहुँच जाता है तो वह पल दिखाता है कि यह रिश्ता अभी भी जिंदा है। फर्क बस इतना है कि पहले भावनाएँ सहज थीं, अब याद दिलानी पड़ती हैं। माँ-बाप के जाने के बाद जो घर कभी एक छत के नीचे गूंजता था अब चार दिशाओं में बंट गया है। और उस बँटवारे में सबसे ज्यादा जो खोया है वह है अपनापन। पहले जहाँ माता-पिता हर त्योहार पर बच्चों को जोड़ने का काम करते थे अब उनके जाने के बाद यह जिम्मेदारी किसी ने नहीं उठाई। यही कारण है कि अब रिश्ते दूरी में गुम हो रहे हैं।
भाई दूज का पर्व इस बदलते दौर में हमें फिर याद दिलाता है कि रिश्ते निभाने के लिए वक्त नहीं, दिल चाहिए। बहन के तिलक में जो दुआ छिपी है वह किसी ऑनलाइन उपहार से कहीं ज्यादा मूल्यवान है। भाई का हाथ थामने की जो भावना है वह किसी महंगे गिफ्ट से नहीं खरीदी जा सकती। समय बदल गया पर रिश्तों की आत्मा वही है बस उसे महसूस करने की जरूरत है। हमें फिर से वह दिन याद करना होगा जब भाई बहन की हँसी पर खुद को भूल जाता था और बहन भाई की तकलीफ़ पर चुपचाप रो पड़ती थी। यही तो था असली अपनापन जो न बोले शब्दों में था न किसी औपचारिक रस्म में बस दिलों के बीच की खामोशी में था।
आज जरूरत है कि हम इस रिश्ते को फिर से जिएँ। 
त्योहारों को बस फोटो या पोस्ट न बनाएं बल्कि एक बहन अपने भाई के माथे पर सच्चा तिलक लगाए एक भाई अपनी बहन की आँखों में वह निश्चिंत सुकून लौटाए। यही असली उत्सव होगा। रिश्तों की यह लौ बुझी नहीं है बस धुंधली हो गई है। अगर हम चाहें तो फिर से उसे रौशन कर सकते हैं। क्योंकि भाई-बहन का रिश्ता किसी त्यौहार का नहीं बल्कि जीवन का त्योहार है। जब तक यह रिश्ता सांस लेता रहेगा तब तक हमारे घरों में अपनापन मुस्कान और सच्ची इंसानियत की रौशनी बनी रहेगी।

 *लेखक* 
सन्तोष कुमार 
संपादक, दैनिक अमन संवाद
(सामाजिक सरोकारों पर लिखने वाले स्वतंत्र पत्रकार, भोपाल)
9755618891
Comments