मध्य प्रदेश पुलिस के लिए बढ़ती चुनौती — बाल अपराध की नई परछाई


 *लेखक: सन्तोष कुमार* 

मध्य प्रदेश की कानून व्यवस्था के सामने आज एक ऐसी चुनौती सिर उठा रही है जो पारंपरिक अपराध से कहीं अधिक जटिल और संवेदनशील है बाल अपराध। कभी मासूमियत और खेलकूद से भरे बचपन का चेहरा अब धीरे-धीरे अपराध के आँकड़ों में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के हालिया आँकड़े बताते हैं कि प्रदेश में 14 से 18 वर्ष आयु वर्ग के किशोरों द्वारा किए जा रहे अपराधों की संख्या लगातार बढ़ रही है। चोरी, लूट, मोबाइल स्नैचिंग, नशे का कारोबार, साइबर ठगी और यहाँ तक कि हत्या जैसे गंभीर अपराधों में भी अब किशोरों की संलिप्तता सामने आने लगी है। यह स्थिति न केवल पुलिस के लिए, बल्कि पूरे समाज के लिए चिंता का विषय बन चुकी है। 
भोपाल, इंदौर, ग्वालियर, जबलपुर और उज्जैन जैसे बड़े शहरों में दर्ज मामलों से यह साफ होता है कि अपराध का चेहरा बदल रहा है और अपराध की उम्र घट रही है। कभी जो अपराधी 25 से 30 वर्ष के बीच होते थे, अब वही प्रवृत्तियाँ 15-16 वर्ष के किशोरों में दिखाई देने लगी हैं। यह बदलाव सिर्फ आंकड़ों में नहीं, बल्कि समाज की मानसिक बनावट में भी एक गहरी दरार का संकेत है।
इन बाल अपराधों की जड़ें समाज के भीतर गहराई तक फैली हुई हैं। टूटे हुए पारिवारिक संबंध, उपेक्षा, अभिभावकीय कलह, गरीबी, शिक्षा से दूरी और नशे की आसान उपलब्धता यह सब मिलकर किशोर मन को भटका रहे हैं। आधुनिकता की दौड़ में दिखावे की संस्कृति ने भी अपराध की मानसिकता को बढ़ाया है। जब किशोर सोशल मीडिया पर चमकदार जीवनशैली देखते हैं और अपने पास उसके साधन नहीं पाते, तो वे गलत रास्ता चुन लेते हैं। कई बार उन्हें अपराधी गिरोह इस लालच में फँसाते हैं कि जल्दी पैसा मिलेगा, बड़ा मोबाइल मिलेगा या महंगी बाइक। यही छोटी इच्छाएँ बड़े अपराधों का रूप ले लेती हैं।
आज अपराध का स्वरूप भी बदल चुका है। अब यह केवल गलियों और सड़कों तक सीमित नहीं रहा। डिजिटल युग में नाबालिग साइबर अपराधियों की एक नई पीढ़ी जन्म ले चुकी है जो ऑनलाइन गेमिंग प्लेटफॉर्म, सोशल मीडिया और डिजिटल वॉलेट के ज़रिए ठगी करने लगी है। इन मामलों में कई बार वयस्क अपराधी पर्दे के पीछे रहते हैं और नाबालिगों को आगे कर देते हैं, क्योंकि उन्हें पता है कि कानून में किशोरों के लिए नरमी है। यही कानूनी संवेदनशीलता पुलिस के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन गई है अपराधी नाबालिग है, पर अपराध की योजना वयस्क दिमाग से तैयार होती है।
भारत का किशोर न्याय अधिनियम 2015 इस धारणा पर आधारित है कि हर बाल अपराधी सुधार योग्य है। यह संवेदनशील दृष्टिकोण मानवीय अवश्य है, लेकिन जब किशोर अपराध संगठित और हिंसक रूप लेने लगें, तो यही कानून पुलिस की कार्रवाई को सीमित कर देता है। 16 से 18 वर्ष के बीच के गंभीर अपराधियों को कभी-कभी वयस्कों की तरह ट्रायल किया जाता है, मगर अधिकांश मामलों में वे सुधारगृह भेजे जाते हैं जहाँ संसाधनों की कमी, मनोवैज्ञानिकों का अभाव और पुनर्वास के नाम पर औपचारिकता ही दिखाई देती है। कई अधिकारी कहते हैं कि आज के सुधारगृह सुधार के बजाय संक्रमण केंद्र बनते जा रहे हैं जहाँ से बच्चे अपराध की नई तकनीकें सीखकर निकलते हैं।
मध्य प्रदेश पुलिस के सामने यह समस्या किसी कानूनी प्रावधान से अधिक सामाजिक समस्या के रूप में उभर रही है। बावजूद इसके, पुलिस ने पिछले वर्षों में कई सार्थक पहलें शुरू की हैं। “मिशन मुस्कान” के तहत पुलिस बच्चों के पुनर्वास और परामर्श पर काम कर रही है, स्कूलों में संवाद सत्र आयोजित किए जा रहे हैं ताकि किशोरों को अपराध की राह पर कदम रखने से पहले समझाया जा सके। साइबर सुरक्षा अभियान भी चलाए जा रहे हैं ताकि किशोरों को ऑनलाइन अपराधों से बचाया जा सके। कई जिलों में सामुदायिक पुलिसिंग के तहत शिक्षकों, एनजीओ और समाजसेवियों को जोड़ा गया है ताकि बाल अपराध की जड़ पर प्रहार किया जा सके।
मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि हर बाल अपराधी अपराधी नहीं होता, बल्कि वह एक असफल सामाजिक ढाँचे का परिणाम होता है। ऐसे में आवश्यकता है कि हर गिरफ्तारी के साथ मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन अनिवार्य हो और प्रत्येक जिले में ‘बाल मनोवैज्ञानिक सहायता केंद्र’ स्थापित किए जाएँ। यदि पुलिस, शिक्षा विभाग और सामाजिक संगठन मिलकर इन किशोरों को परामर्श, शिक्षा, नशामुक्ति और रोजगार प्रशिक्षण की दिशा में काम करें, तो अपराध की पुनरावृत्ति कम की जा सकती है।
पुलिस अकेले इस जटिल समस्या को हल नहीं कर सकती। अभिभावकों को बच्चों की ऑनलाइन गतिविधियों और मित्र मंडली पर निगरानी रखनी होगी, स्कूलों को लाइफ स्किल्स एजुकेशन और काउंसलिंग को अनिवार्य करना होगा, और समाज को यह समझना होगा कि हर बाल अपराधी को दंड देने से पहले सुधारने की आवश्यकता है। क्योंकि अपराध को खत्म करने से अधिक ज़रूरी है अपराध के कारणों को समाप्त करना।
मध्य प्रदेश पुलिस के लिए बाल अपराध का यह बढ़ता ग्राफ न केवल कानून व्यवस्था की परीक्षा है, बल्कि समाज की नैतिकता की भी। यह केवल अदालतों या सुधारगृहों का विषय नहीं, बल्कि पूरे राज्य के भविष्य का सवाल है। यदि हम इस दिशा में समय रहते ठोस कदम नहीं उठाते, तो अपराध की यह नन्ही परछाई आने वाले वर्षों में एक भयानक साया बन जाएगी। अब जरूरत है संयुक्त प्रयासों की पुलिस, शिक्षा तंत्र, अभिभावक और समाज सभी को एकजुट होकर काम करना होगा, ताकि अपराध की राह पर भटक रहे किशोरों को सही दिशा दी जा सके। क्योंकि अंततः यही सच सबसे बड़ा है हर बाल अपराधी असफल समाज का प्रतिबिंब होता है, और यदि हम उसे सुधार लें तो हम अपने समाज को बचा लेंगे।

लेखक
सन्तोष कुमार 
संपादक दैनिक अमन संवाद भोपाल 

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